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सांविधानिक विधि

सीता सोरेन बनाम भारत संघ (2024)

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 28-Aug-2024

परिचय:

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जिसमें भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 105(2) एवं अनुच्छेद 194(2) के अंतर्गत दी गई विधायी प्रतिरक्षा की सीमा पर चर्चा की गई है। 

यह निर्णय भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना, एम.एम. सुंदरेश, पी.एस. नरसिम्हा, जे.बी. पारदीवाला एवं संजय कुमार सहित सात न्यायाधीशों की पीठ ने दिया।

तथ्य

  • राज्य सभा के दो सदस्यों के निर्वाचन हेतु 30 मार्च, 2012 को चुनाव आयोजित किया गया।
  • झारखंड मुक्ति मोर्चा से संबंधित अपीलकर्त्ता के विरुद्ध आरोप यह था कि उसने एक निर्दलीय प्रत्याशी से उसके पक्ष में वोट देने के लिये रिश्वत ली थी।
  • हालाँकि राज्य सभा में खुली मतदान प्रणाली है, इसलिये यह पाया गया कि अपीलकर्त्ता ने अपनी पार्टी के सदस्य को वोट दिया था।
  • अपीलकर्त्ता ने अपने विरुद्ध आरोप-पत्र एवं आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिये उच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
  • उच्च न्यायालय ने इस आधार पर मामले को रद्द करने से इनकार कर दिया कि अपीलकर्त्ता ने उस व्यक्ति को वोट नहीं दिया, जिससे उसने रिश्वत ली थी और पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम राज्य (1998) निर्णय के विधिक अनुपात को लागू करते हुए न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के विरुद्ध मामला रद्द करने से इनकार कर दिया।
  • उच्चतम न्यायालय के पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम भारत संघ (1998) के निर्णय की सत्यता पर संदेह प्रकट किया और मामले को वृहद् पीठ को स्थानांतरित कर दिया।
  • इस प्रकार, पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम भारत संघ (1998) में निर्धारित विधान की शुद्धता की जाँच के लिये सात न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया गया था।

शामिल मुद्दे

  • संविधान के अनुच्छेद 105 (2) या अनुच्छेद 194 (2) के अंतर्गत विधायिका को कितनी प्रतिरक्षा प्राप्त है?
  • क्या किसी विधायक को संसद या विधानसभा में वोट देने के लिये रिश्वत लेने से छूट प्राप्त है?

टिप्पणियाँ

  • न्यायालय द्वारा निम्नलिखित बिंदु निर्धारित किये गए:
    • इस न्यायालय की एक वृहद् पीठ किसी पिछली पीठ द्वारा दिये गए निर्णय पर पुनर्विचार कर सकती है। इस प्रकार पूर्व-निर्णय के आधार पर निर्णय लेने का सिद्धांत, विधि का एक कठोर नियम नहीं है।
    • ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स के विपरीत, भारत में ‘प्राचीन और स्पष्ट’ विशेषाधिकार नहीं हैं, जो संसद एवं राजा के बीच संघर्ष के उपरांत निहित हुए थे।
      • स्वतंत्रता-पूर्व भारत में विशेषाधिकार, औपनिवेशिक सरकार द्वारा स्थापित विधि द्वारा शासित होते थे।
    • किसी विशेष मामले में विशेषाधिकार का दावा संविधान के मापदंडों के अनुरूप है या नहीं, यह न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
    • प्रतिरक्षा के दावे को दो परीक्षणों पर खरा उतरना होगा: पहला, यह सदन के सामूहिक कामकाज से जुड़ा होना चाहिये और दूसरा, यह विधायिका के आवश्यक कर्त्तव्यों के निर्वहन के लिये आवश्यक होना चाहिये।
      • कोई भी व्यक्तिगत सदस्य रिश्वतखोरी के आरोप से छूट पाने के लिये विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकता।
    • संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 द्वारा ऐसी स्थिति बनाए रखने का प्रयास किया गया है जिसमें विधानमंडल के भीतर चर्चा तथा विचार-विमर्श हो सके। यह उद्देश्य तब नष्ट हो जाता है जब किसी सदस्य को रिश्वत के कारण किसी विशेष तरीके से वोट देने या बोलने के लिये प्रेरित किया जाता है।
    • रिश्वतखोरी का अपराध तब पूरा हो जाता है जब विधायक रिश्वत स्वीकार कर लेता है तथा इस बात से कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि वोट सहमति के अनुसार डाला गया है या नहीं।
    • विधायिका के सदस्यों द्वारा भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी से सार्वजनिक जीवन में शुचिता समाप्त हो जाती है।
    • किसी आपराधिक अपराध के लिये वाद चलाने का न्यायालय का क्षेत्राधिकार तथा अनुशासन भंग करने पर कार्यवाही करने का सदन का अधिकार अलग-अलग क्षेत्रों में विद्यमान हैं।
      • दोनों का विस्तार, उद्देश्य एवं परिणाम अलग-अलग हैं।
    • पी.वी. नरसिम्हा बनाम भारत संघ (1998) निर्णय की व्याख्या के परिणामस्वरूप विरोधाभासी परिणाम सामने आए हैं, जहाँ रिश्वत लेकर वोट न देने वाले व्यक्ति पर वाद चलाया जा सकता है, परंतु रिश्वत लेकर वोट देने वाले व्यक्ति पर वाद नहीं चलाया जा सकता। यह संविधान के अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 194 में निहित भावना के अनुरूप नहीं है।
    • वाक्यांश 'के संबंध में', 'से उत्पन्न' या 'से स्पष्ट संबंध रखने वाले' शब्दों की व्याख्या किसी ऐसे अर्थ में नहीं की जा सकती जिसका दिये गए भाषण या मत से दूर-दूर तक कोई संबंध हो।

निष्कर्ष:

इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने एक लंबे समय से चले आ रहे विवादित निर्णय को पलट दिया। यह निर्णय हमारे देश के लोकतंत्र की शुचिता की रक्षा करने में अत्यधिक सहायक सिद्ध होगा। भ्रष्टाचार एक ऐसी बीमारी है जो किसी भी लोकतंत्र को ठीक से काम नहीं करने देती। पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम भारत संघ (1998) के निर्णय ने भ्रष्टाचार को वैध बना दिया। इस निर्णय को पलटने से अंततः एक ऐसी विधिक व्याख्या सामने आई है जो संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप है।